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रुद्रपुर के कवियों से हो रहा भेदभाव! कवि सम्मेलन की आड़ में कारोबार या राजनीति? स्थानीय कवियों को न मंच, न सम्मान — साहित्यकारों में गहरा रोष, आयोजकों पर उठे सवाल

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रुद्रपुर के कवियों से हो रहा भेदभाव! कवि सम्मेलन की आड़ में कारोबार या राजनीति?

स्थानीय कवियों को न मंच, न सम्मान — साहित्यकारों में गहरा रोष, आयोजकों पर उठे सवाल

रुद्रपुर:मनीश बावा (ख़बरीलाल खोज) वर्षों से रुद्रपुर में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों पर अब सवालों के बादल गहराने लगे हैं। शहर के वरिष्ठ और अनुभवी कवियों को लगातार नज़रअंदाज़ किए जाने से स्थानीय साहित्य जगत में रोष फैल गया है। सवाल उठ रहा है कि आखिर क्यों अपने ही शहर के कवि मंच से दूर किए जा रहे हैं, जबकि बाहरी कवियों को बार-बार बुलाकर सम्मानित किया जा रहा है।

रुद्रपुर, पंतनगर, गदरपुर, बाजपुर और हल्द्वानी क्षेत्र के कवि लंबे समय से उत्तराखण्ड की साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। रुद्रपुर के डॉ. सबाहत खान, डॉ. साहिल कानपुरी, कस्तूरी लाल तागरा, डॉ. जयंत शाह, डॉ. शंभू पांडे शैलेय, गुड़िया तिवारी, रजनीश जस और विवेक बादल जैसे कवि वर्षों से कविता, गीत और ग़ज़ल की दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं।

इसके अलावा, पंतनगर के डॉ. के. पी. सिंह विकल और डॉ. ओम शंकर मिश्रा, गदरपुर के सुबोध शर्मा शेरकोटी, बाजपुर के विवेक बादल बाजपुरी, और हल्द्वानी के वेद प्रकाश अंकुर व पुष्पा जोशी जैसे रचनाकारों ने भी अनेक राष्ट्रीय और प्रादेशिक मंचों पर उत्तराखण्ड का नाम रोशन किया है।
इन सबके बावजूद, रुद्रपुर में आयोजित कवि सम्मेलनों में स्थानीय कवियों को मंच पर स्थान न मिलना साहित्यिक बिरादरी में असंतोष का विषय बना हुआ है।

साहित्य या कारोबार? उठ रहे तीखे सवाल

कई स्थानीय कवियों और साहित्यप्रेमियों का कहना है कि कवि सम्मेलन अब साहित्यिक आयोजन से ज़्यादा कारोबार और प्रसिद्धि का साधन बनते जा रहे हैं।
बाहरी कवियों को बुलाकर सम्मानित करने की परंपरा ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या कवि सम्मेलन अब भावनाओं का नहीं बल्कि प्रभावशाली चेहरों का खेल बन गया है?

कुछ कवियों ने यह भी आरोप लगाया कि आयोजकों की मंशा पारदर्शी नहीं है। कई बार मंच और सम्मान उन्हीं को मिलता है जो आयोजकों के “करीबी” हैं या जिनके नाम से प्रचार आसान होता है।

“रुद्रपुर में प्रतिभा की कोई कमी नहीं, लेकिन यहाँ मंच का वितरण पहचान और जुड़ाव के हिसाब से होता है, न कि योग्यता के आधार पर।” — एक स्थानीय कवि ने कहा।

राजनीतिक दखल की चर्चा

पूर्व विधायक राजकुमार ठुकराल का नाम भी कवि सम्मेलन की चर्चाओं में बार-बार सामने आ रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि कवि सम्मेलन अब साहित्य से ज़्यादा राजनीतिक संपर्कों और दिखावे का माध्यम बन चुके हैं।
स्थानीय कवियों ने सवाल उठाया है कि आखिर अपने ही विधानसभा के कवियों को मंच क्यों नहीं दिया जा रहा?

“क्या स्थानीय कवियों को बुलाने से किसी बड़े खुलासे का डर है?” — यह सवाल अब शहर के हर साहित्यिक मंच पर गूंज रहा है।

रुद्रपुर के कवि बने राज्य की पहचान

यह बात किसी से छिपी नहीं कि रुद्रपुर और आसपास के क्षेत्रों के कवि वर्षों से उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखे हुए हैं। इन कवियों ने अपने शब्दों से न सिर्फ मंचों को सजाया है, बल्कि उत्तराखण्ड की भाषा, लोक और संवेदना को पूरे देश में पहुँचाया है।
फिर भी, जब इन्हीं कवियों को अपने शहर में सम्मान नहीं मिलता, तो यह स्थिति पूरे साहित्य जगत के लिए चिंता का विषय है।

📜 निष्कर्ष:
रुद्रपुर के कवि सम्मेलन अब सवालों के घेरे में हैं। यदि आयोजक सचमुच साहित्य की सेवा कर रहे हैं, तो उन्हें यह साबित करना होगा कि मंच प्रसिद्धि के लिए नहीं, प्रतिभा के लिए है। अन्यथा यह परंपरा धीरे-धीरे विश्वास खो देगी — और रुद्रपुर का साहित्यिक सम्मान भी कहीं खो जाएगा।

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